जून के मुख्य कृषि कार्य
सार
देश में कृषि, सदियों से गांवों में बसे हुये लोगों के जीवन निर्वाह का सहारा तथा परंपरागत व्यवसाय रहा है। यह न केवल देश की दो तिहाई जनसंख्या की आजीविका सुरक्षा पद्धति की मेरूदण्ड है, बल्कि उनकी आर्थिकी, व्यापारिकी एवं सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक भी है। हमारी खेती वर्षा आधारित होने के कारण औसत उत्पादकता अभी विश्व की औसत उत्पादकता से बहुत कम है। धान, ज्वार, बाजरा, मक्का आदि मानसून पफसलों की खेती का इस खाद्यान्न उत्पादन में आधे से अधिक का योगदान है और ये सभी फसलें मानसून के आगमन पर निर्भर करती हैं। सघन खेती के अलावा बारानी खेती का उचित प्रबंधन करना बहुत ही आवश्यक है। इसके अन्तर्गत खरीपफ फसलों जैसे-ज्वार, बाजरा, मक्का, मूंग, उड़द, अरहर, ग्वार, मोठ, तिल आदि की कम सिंचाई चाहने वाली उन्नत प्रजातियों का चयन बहुत ही महत्वपूर्ण है। उचित समय पर बुआई, क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई, बूंद-बूंद पानी का दक्ष उपयोग, पूसा हाइड्रोजेल प्रयोग द्वारा कम पानी में पफसल प्रबंधन, वाष्पीकरण कम करने हेतु पलवारों (मल्चिंग) का प्रयोग आदि कृषि क्रियायें वर्षा आधारित क्षेत्रों व सीमित जल से अधिक पैदावार लेना अब समय की मांग बन गया है। किसान भाइयों को वैज्ञानिक तरीके अपनाकार फसलों की जल उपयोग दक्षता बढ़ाने पर ध्यान देना होगा। अधिक बारिश के पानी का ज्यादातर हिस्सा खेती के प्रयोग में नहीं आ पाता और नालियों में बहकर व्यर्थ चला जाता है। यदि हम जल संचयन तकनीकी अपनाएं, जिसमें खेत के ही एक हिस्से में छोटा सा जल संग्रहण तालाब बनाएं, ताकि बरसने वाला पानी सूखे के दौरान सिंचाई के लिए खेत में संचित रहे। इस प्रकार के संचयन को कहा गया है, ‘गांव का पानी गांव में, खेत का पानी खेत में। इससे सिंचाई की जरुरत काफी हद तक पूरी हो सकती है। दलहन और तिलहन उत्पादन का लगभग 80 प्रतिशत से अधिक हिस्सा इसी भूमि पर निर्भर करता है। हरित क्रांति के दौर में सिंचित भूमि का भरपूर दोहन हो चुका है। अब दूसरी क्रांति के लिए रास्ता केवल वर्षा पर आधारित बारानी खेती और जल प्रबंधन से होकर जाता है। दक्षिण-पश्चिम मानसून इस माह देश के विभिन्न हिस्सों में दस्तक देने लगता है।
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